सुन्नर नैका। कोसी मइया की धाराओं और उसके प्रवाह की तरह कई तरह की अनिश्चितताओं और आवेग के साथ आगे बढ़ती कथा है। कोसी मइया को लेकर प्रचलित लोक कथाओं की तरह ही ‘सुन्नैर नैका’ की इस कथा में एक नारी की भावनाएँ हैं, एक नारी का उद्वेलन है, उसकी तड़प है, उसका गुस्सा है, विद्रोह है और नारी का वो विनाशकारी रूप भी है, जो अपने पर आ जाए तो न तो अपने अस्तित्व की चिंता करती है और न ही उनकी जो हमेशा उन्हें कुछ ‘तटबंधों’ में बाँधने की कोशिश करते हैं। पुष्यमित्र का ये उपन्यास नारी चेतना का प्रतिबिम्बन करने के साथ ही पुरुष मन की सड़ांध और समाज के सामंती सोच को करीने से बेनकाब करता है, लेकिन किसी को आहत नहीं करता, बल्कि पुरुष मन को भी सहलाता हुआ अपनी बात कहता है। लेखक ने नारी मन के साथ पुरुष के मनोभावों का एक संतुलन बनाने की कोशिश की है लेकिन सुन्नर नैका की सुंदरता को लेकर राघव जिन निष्कर्षों पर पहुँचता है, उसका कोई तार्किक आधार उपन्यास में नहीं बनता। मजाक में कही गई ऐसी बातें उपन्यास में क्यों कर आ गई हैं, ये लेखक को खुद ही सोचना और समझना होगा। बहरहाल, कोसी और सुन्नैर की कथा का ये ‘रसभरा’ उपन्यास आधुनिक युग के ‘राकसों’ के ठहरे हुए पानी में ‘कंकड़’ मारकर हलचल जरूर पैदा करेगा, ऐसा लगता है।
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